8/11/07
जीवन विज्ञान
सॉसों के साथ जो सृिष्ट शुरु होती है , धड़कनों में फैलती हुई , अनुभूतियों में आकार लेती हुई ...... विचार की लहरों से सोच की नाव को दिशा देती हुई ..... भावनाओं के आवेगों के साथ संकल्प के द्वीपों को पार करते हुए ..... एक दुनिया बनाती हुई । वो दुनिया जो आदमी होश सम्हालने के साथ पाता / बनाता है और मरने तक हर पल जिसका साथ निभाता है ; उस जगत की अन्वेषणा का कोई विज्ञान होना चाहिये । कला उस जगत को जीत / जान लेने की छापामार लड़ाई दिखती है ..... प्रचलित विज्ञान उसकी दूष्पुरता को छूने से हिचकता है ; आध्यात्म बहुधा अपने आदिकालीन बिंबो से परिभािषत करने की कोशिश में उसे अरुचिकर रहस्य के घेरे में बिठला देता है । वो यात्रा जो सब करते हैं .....मगर सबके पास अपना अपना ऐसा नक्शा होता है जो या तो दूसरे की समझ नही आता या फिर उसके काम का नही होता ।
मनुष्य अपनी भौतिक उपस्थिति को जिन आयामों के सहारे जीता है .....उसकी भौतिकता का सारा अर्थ और प्रासंगिकता ही जीवन के जिन आयामों के कारण होती है उनकी तर्कसंगत विवेचना और खोज की विधी भी होनी चाहिये .... ऐसी विधी जिसमें दीक्षित हुए बिना या आस्था किये बिना भी जिसका सुफल हर कोई पा सके ।
मैं जीवन की इस वैज्ञानिक अन्वेषणा को जीवन विज्ञान कहना चाहूँगा ।
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1 टिप्पणी:
पानी में बिना उतरे तैरना बहुत मुश्किल है।आप जीवन को अपनें ढंग से अगर समझ सकते हैं तो वह और भी अच्छा है\
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